बड़कोट: बड़कोट में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध रवाई घाटी की बनाल व ठकराल पट्टी में ऐतिहासिक देवलांग की अलग ही पहचान है। उत्तरकाशी जिले की रवाई घाटी में पौराणिक सभ्यता व संस्कृति के अनुरूप त्योहारों व उत्सवों को बड़े स्तर पर मनाने का रीति-रिवाज पौराणिक काल से चला आ रहा हैं। यही कारण है कि रवाई घाटी के लोगों के त्यौहारों को अनूठे रूप में मनाए जाने से प्रत्येक त्यौहार अपनी अलग ही विशिष्टता प्रदान करते हैं। ऐसे ही विशिष्टता प्रदान करने वाला त्यौहार है “देवलांग”। यह त्यौहार दीपावली के ठीक एक महीन बाद मनाया जाने वाला मांगसीर की बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। इसी तरह ये त्यौहार भी बड़ी धूमधाम से मनाया गया। इस अवसर पर यमुनोत्री विधायक केदार रावत ने मेले का शुभारंभ कर सांस्कृति के मैदान के लिए 5 लाख की घोषणा की तथा विभिन्न सांस्कृति कलाकारों द्वारा अपनी कला का प्रदर्शन किया गया ।
उत्तरकाशी जिले के बड़कोट तहसील मुख्यालय से करीब 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बनाल पट्टी के गैर गांव में देवलांग का पर्व मनाया जाता है। देवलांग के इस पर्व की तैयारी बनाल पट्टी क्षेत्र में साठी और पानशाही तोक के ग्रामीण एक महीने पहले ही शुरू कर देते हैं। तैयारियों के सभी कार्य प्राचीन काल से चली आ रही सभ्यता के अनुरूप बंटे हुए हैं। यहां देवलांग के लिए पहले ही छिलके तैयार किए जाते हैं, जो निश्चित गांव के लोग तैयार करते हैं।
अमावस्या के दिन गांव के लोग व्रत रखकर बड़ी श्रद्धा के साथ देवदार के लंबे साबुत पेड़ को मंदिर प्रांगण में लाते हैं तथा विशेष पूजा अर्चना के साथ पेड़ के बाहर छिलके बांधकर उसे तैयार करते हैं। रात्रि में गांव-गांव से ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ अलग-अलग समूह में नाच गाकर गैर गांव पहुंचते हैं। जहां पूरी रात ढोल नगाड़ों की थाप पर नाच-गानों के साथ बिताई जाती है व सुबह होने से पहले देवदार के इस पेड़ पर आग लगा कर इसे खड़ा करते हैं। यह पेड़ रात खुलने तक जलता रहता है।
बनाल पट्टी के गांव दो तोक में बंटे हैं। एक साठी और दूसरा पानशाही। साठी और पानसाई तोक के लोग इस पेड़ को खड़ा करते हैं। जिसे देवलांग कहते हैं । देवलांग अर्थात देवता के लिए लाया गया देवदार का लंबा वृक्ष। देवलांग नीचे से ऊपर की ओर जलती चली जाती है। जिसे देख कर आभास होता है कि एक सुंदर सा दीपस्तंभ जल रहा हो। यह दृश्य देखने लायक होता है जिसे देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग दूर-दूर से यहां पहुंचते हैं। देवलांग देवताओं को प्रसन्न करने का एक प्रयास है तथा इसे प्रभु की ज्योति के रूप में अज्ञान व अंधकार को हरने वाले उजाले के रूप में भी देखा जाता है।