देहरादून:
…उन सभी को बधाई, जिनको उत्तराखंड अलग राज्य बनने की खुशी है। उन राज्य निर्माण आंदोलनकारियों को नमन, जिन्होंने राज्य निर्माण के लिए अपने प्राण दिए। उनके परिवारों के साथ गहरी संवेदना। मुझे राज्य निर्माण दिवस की कतई खुशी नहीं होती। वैसे तो मुझे कोई हक नहीं है, लेकिन जो लोग खुश हो रहे हैं। उनकी खुशी पर भी मुझे ऐतराज है। क्या केवल उत्तराखंड नाम मिलने और मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक बनने भर से हमारा राज्य समृद्ध हो गया। उत्तराखंड अलग राज्य बनने से पहले समृद्ध था। आज का उत्तराखंड लुटा-पिटा और बर्बादी की कगार पर खड़ा हुआ उत्तराखंड है। क्या आपको वास्तव में उत्तराखंड बनने की खुशी मिल पाई है। अगर हां तो जश्न मनाइए…खूब बनाइए। अगर नहीं तो फिर जश्न किस बात का…?
राज्य बनने के बाद इस प्रदेश में क्या बने…केवल आयोग। राजधानी से लेकर पलायन आयोग तक। राज्य को आजतक कुछ हासिल हुआ तो बता दें…हम साथ मिलकर खुशी मनाएंगे। पहले राजधानी की ही बात कर लेते हैं। राज्य आंदोलन जब शुरू हुआ था। उसकी पहली प्राथमिकता थी, पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही हो। गैरसैंण राज्य आंदोलनकारियों की पहली पसंद था और शायद ये जगह मुफीद भी थी। गैरसैंण में राजधानी के नाम पर एक सफेद हाथी वहां जरूर खड़ा कर दिया गया, जिसमें समय-समय पर सत्ता के मद में चूर राजनीति के हाथी पिकनिक मनाने हैं और वापस अपनी पसंदीदा पनाह अस्थाई राजधानी देहरादून लौट आते हैं। राजधानी गैरसैंण बनाने को लेकर कुछ मतवाले युवा आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन पहाड़ छोड़ मैदानी हो चले पहाड़ियों की नींद भी गहरा चुकी है।
शिक्षा…सरकारें बेहतर शिक्षा के दावे करती है, लेकिन पहाड़ के स्कूलों को बंद कर रही है। सरकार ने स्कूल बंद करने का फैसला इसलिए लिया, क्योंकि उन स्कूलों में बच्चों की संख्या कम हो गई। सरकार ने जिस तरह से स्कूल बंद करने का निर्णय लिया, क्या सरकार इन स्कूलों में बेहतर सुविधाएं देकर उनमें छात्र संख्या नहीं बढ़ा सकती थी। कुमाऊं और गढ़वाल के कुछ हिस्सो में शिक्षकों ने स्कूलों को सुधारने का काम शुरू किया है। उनके अभियान का नाम प्रयत्न और प्रयास है। यकीन मानिए, जैसे स्कूल इन शिक्षकों ने लोगों से चंदा जुटाकर तैयार किए हैं। क्या सरकार वैसे स्कूल तैयार नहीं कर सकती, कर सकती है, लेकिन करना नहीं चाहती। रोजगार का सवाल गायब है। जो भी इस सवाल को उठाता है। सरकार लाठियों से उसे चुप करा देती है। प्रदेश में बेरोजगारों के आंकड़ों में लगातार इफाजा हो रहा है। क्या हम बेरोजगार होते युवाओं के लिए जश्न मना सकते हैं?
पानी, बिजली, सड़क और स्वास्थ्य…क्या आपके और हमारे जश्न वाले उत्तराखंड में ये सब चीजें हैं। जो पहाड़ पहले मैदानों को पानी देता था, आज खुद पानी के लिए तरस रहा है। हर साल पहाड़ में पौधे रोपे जाते हैं। इन रोपे गए पौधों की संख्या का आंकलन अगर किया जाए, अब तक पूरे प्रदेश में इतने पौधे रोपे जा चुके हैं कि अगर उनमें से आधे भी बचते, तो उत्तराखंड में हरियाली ही हरियाली होती। क्या कहीं आपको ऐसा नजर आता है। पौधे रोपे जा रहे हैं, पर वो पेड़ नहीं बन पा रहे हैं, क्यों…? इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिलेगा। देश की सरकार ऐलान कर चुकी है कि हर घर में बिजली आ चुकी है। पर क्या पहाड़ के गांवों तक बिजली पहुंच पाई है।
पूरा उत्तराखंड ओडीएफ पहले की घोषित किया जा चुका है। प्रमाण पत्र मंत्री और प्रदेश सरकार के कार्यालयों में टांगे जा चुके हैं, पर क्या आपको पता है कि अब तक ओडीएफ का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। ओडीएफ का सवाल स्वास्थ्य से जुड़ा है। क्या आपको पहाड़ के गांवों में इलाज मिल रहा है। क्या आपके गांव या जिला मुख्यालय के अस्पताल में पूरा इलाज मिल रहा है। क्या आपको देहरादून, हल्द्वानी, ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार और ऋषिकेश नहीं आना पड़ रहा है। अगर आना पड़ रहा है, तो जश्न किस बात का…?
बुखार के मामूली मर्ज का इलाज कराने के लिए भी आपको रैफर कर दिया जाता है। फिर आप कौन से उत्तराखंड निर्माण का जश्न मना रहे हैं…? ये जश्न मनाने का नहीं, उन आंदोलनकारियों के लिए दुखी होने का वक्त है, जिन्होंने अपने प्राणों के बलिदान की कीमत पर इस राज्य को हासिल किया। गांव में प्रधान नहीं बन सकने वाले नेताओं और माफिया के लिए इस राज्य का निर्माण नहीं हुआ। इस प्रदेश के पहाड़ों को तबाह करने के लिए इस राज्य का निर्माण बिल्कुल भी नहीं किया गया। ये वक्त यह सोचने का है कि कैसे हम इस राज्य की डूबती नाव को पार लगाएं। हमें मिलकर कुछ विषेश करने की जरूरत है। सबको साथ चलकर बिगड़ते उत्तराखंड को संवारने की जरूरत है। ये जश्न मनाने का नहीं, बल्कि बड़े होते उत्तराखंड को राह से भटकने से बचाने का वक्त है….। जय उत्तराखंड।