अल्मोड़ा: उत्तराखण्ड को यूं ही देवभूमि नही कहा जाता है, जहां उत्तराखण्ड में अनेक मंदिर और देवालय हैं, वहीं यहां की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा भी सशक्त है। वर्ष में अनेक ऐसे धार्मिक त्यौहार यहां पूरे उत्साह और हर्षउल्लास के साथ मनाए जाते हैं। उन्ही में से एक यहां मनाने वाले सातूं-आठूं की पूजा भी अपना विशेष महत्त्व रखती है। सावन मास शुक्ल पक्ष के सम्तमी और अष्टमी को कुमाऊ भर में सातूं-आठूं पूजा बडी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। महिलाएं पारंपरिक परिधान पहनकर एवं पूरा श्रृंगार कर घरों में धान, मादिरा, कुकुडी और माकुडी से भगवान शिव और माता गौरा बना कर उनकी शादी कर पूजा-अर्चना करती है और दूसरे दिन सभी महिलाएं गौरा का पूरा श्रृंगार कर उन्हें शिव के साथ ससुराल भेजती है। मान्यता है कि, सातूं-आठूं पर्व में गौरा अपने मायके में रहती है। गौरा का विवाह शिव के साथ करवा कर गौरा को पूरे विधि-विधान के साथ ससुराल भेजा जाता है। इस दौरान महिलाएं अपने पति की लम्बी आयु की कामना करती है।
महिलाओं का कहना है कि, सातूं-आठूं पर्व को महिलाएं बडी धूम धाम के साथ मनाती है और पर्व पर दो दिन का उपवास रखती है, जिसमें शिव और गौरी की शादी के बाद गौरी को ससुराल को भेजने के बाद ही उपवास को तोडा जाता है। इस दिन घरों में विशेष तरह के पकवान बनाए जाते है। और शिव गौरी को उसका भोग लगाते है। इस पर्व में महिलाएं अपनी पति की लम्बी आयु के लिए डोर और दुबडे को पहनती है। और भगवान शिव और गौरी से अपने पति की लम्बी आयु की कामना करती है। महिलाएं बताती है कि जब शिव और गौरी की शादी हो जाती है तो बाद में भगवान शिव और माता गौरी को एक पेड के नीचे स्थापित किया जाता है।
वहीं पण्डितों का कहना है कि, सावन माह के शुक्ल पक्ष को सातूं-आठूं पर्व मनाया जाता है। इसमें महिलाएं घरों में धान, मादिरा, कुकुडी और माकुडी के द्वारा शिव और गौरी बना उनकी शादी करवा कर पूजा अर्चना करती है और पति की लम्बी आयु की कामना करती है। भगवान शिव और माता गौरी उनकी मनोकामना पूर्ण करती है।
ऐसे में जहां पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में नई पीढी सभी पारंपरिक संस्कृति को विमुख हो रही है। वहीं उत्तराखण्ड के विशेष कर पहाडी क्षेत्रों की महिलएं अपनी परंपरा का बखूबी निर्वहन कर रही है, लेकिन जरूरत है कि आने वाली पीढि को इससे रूबरू कराया जाए।