मुंशी प्रेम चंद की जयंती पर विशेष

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देहरादून: धनपत राय, गुलाब राय और प्रेम चंद। तीन नाम। इन नामों में बस शब्दों का ही फेर है। तीनों में एक ही आत्मा बसती थी, जिसकी धमनियों में स्याही बहती थी और कलम से लिखा जाने वाला एक-एक शब्द धड़कन होता था। आज ही के दिन देश और दुनिया के कालजयी रचनाकार मुंशी प्रेम चंद का जन्म 1880 में हुआ था। उनके पहले पांच कहानियों के संग्रह ’’सोजे वतन’’ ने अंग्रेजों की चूलें हिला दीं थी। कहानी संग्रह की प्रतियों को अंग्रेज हुकुमत ने जला डाला। उनको धमकी दी गई कि लिखना बंद कर दे। गुलाब राय का जीवन लेखनी और कागजों में ही बसता था। भले उन्हें कौन लिखने से रोक सकता था। उन्होंने अपना नाम बदलकर उसी दिन मंुंशी प्रेम चंद कर लिया और इसी नाम से लिखने लगे। प्रेम चंद्र हिंदी साहित्य का वह नाम बना, जिसके आसपास आज तक कोई नहीं पंहुचा पाया। उन्होंन अपना पूरा जीवन गरीबी में बिता दिया, लेकिन हिंदी साहित्य को सदा-सदा के लिए अमीर बना गए। मुंशी प्रेम चंद की जयंती पर विशेष 2 Hello Uttarakhand News »
मुंशी प्रेम चंद ने जो भी कहानी, उपन्यास और अन्य रचनाएं लिखी, वो आज भी प्रासांगिक बनी हुई हैं। प्रेम चंद ने जो भी लिखा सत्य लिखा। उन्होंन अभाओं की जिंदगी जी। बचपन में ही मां का निधन हो गया। 15 साल की उम्र में पिता का निधन हो गया। इसी उम्र में उनकी शादी भी हो गई थी। काम का बोझ सहते हुए भी कभी हिंदी साहित्य को बोझिल नहीं होने दिया।
प्रेम चंद वकील बनना चाहते थे, लेकिन अपने ख्वाब को परिवार चलाने की भागादौड़ी में छोड़ दिया और काम करने लगे। इतना सबकुछ होने के बावजूद उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। शुरुआत में नाटक लिखा करते थे, लेकिन जल्द ही वे उपन्यास और कहानियां लिखने लगे।
एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहे प्रेम चंद को आर्थिक गंगी के कारण उनकी पत्नि छोड़कर चली गई। विधवा विवाह के प्रेम चंद्र प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में भी उसका समर्थन किया और जगह भी दी। पत्नि के छोड़कर जाने के बाद उन्होंने एक बाल-विधवा से विवाह कर लिया था।
कलम के महान सिपाही प्रेमचंद ने अपनी संवेदनाएं, होरी-धनिया, गोबर-झुनिया, अमरकांत, सूरदास जैसी कालजयी रचनाओं के जरिए व्यक्त की। उनकी कई रचनाएं हैं, जिनके नाम यहां गिनाने की जरूरत नहीं। उन्होंने जिन मुश्किलों का सामना किया। शायद आज के युग में वैसी मुश्किलात हर किस के कदम डिगा दे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। लड़े और जीते भी।
उनका जीवन और रचानाएं आज भी प्रासांगिक हैं और आगे भी रहेंगी। आर्थिक तंगी से जूझते हुए। लंबी बीमारी के चलते अक्टूबर 1936 में उनका निधन हो गया। उनके उपन्यास और कहानियों की धार कम नहीं हुई। जिस तरह से उनके नाम बदलने से उनकी रचनाशीलता की धार और तेज हुई थी। उसी तरह जैसे-जैसे समय बदल रहा है। वैसे-वैसे उनके उपन्यास और कहानियों की धार और अधिक तेज और प्रासांगिक होती जा रही है।

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