प्रदीप रावत (रंवाल्टा)
डबल इंजन सरकार। बस कहने की ही डबल इंजन है। इंजन की ना तो ताकत दिखी और ना इंजन को रोड़ पर सही ढंग से चलाने का रोड़मैप। एक साल बाद भी सरकार को अब तक यह समझ नहीं आया कि आखिर करना क्या है? कभी निर्णय लेने के बाद पीछे हट जाती है, तो कभी ऐसे निर्णय ले लेती है, जिनसे पीछे हटना ही पड़ता है। सरकार के पास पिछले एक साल में गिनाने के लिए कुछ भी नहीं है। कोई ठोस निर्णय लेने के बजाय सरकार बस उलझती ही नजर आई है। उस उलझन में विकास तो पीछे छूट ही गया। सरकार ने जो भी फैसले लिए। वह उन पर ही भारी पड़ते दिखे।
ताजा मामला निकाय चुनाव का है। सरकार ने बिना किसी तैयारी के गांवों को निकायों में मिलाने का एलान कर दिया। सरकार का फैसला आते ही लोगों ने विरोध शुरू कर दिया। लोगों के विरोध को दरकिनार करते हुए सरकार ने अपना फैसला जबरन थोपना शुरू कर दिया। कुछ दिन तक लोगों ने आंदोलन किए, सरकार नहीं मानी तो लोग कोर्ट की शरण में पहुंच गए। कोर्ट ने आम जनता के पक्ष में निर्णय देते हुए सरकार को जनसुनवाई करने के निर्देश दिए। बावजूद इसके सरकार चुप बैठी रही। केवल हवाई दावे होते रहे कि हम निकाय चुनाव समय से करावा लेंगे। सरकार के पास लंबा वक्त था। बहुत कुछ कर भी सकती थी, लेकिन डबल इंजन को सरकार के निर्णयों से झटके लगते रहे। नौबत यह है कि अब डबन इंजन खटारा होने की कगार पर पहुंच गया है।
सरकार के कामकाज का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को चुनाव की तारीखों का एलान करने के लिए पत्रकार वार्ता करने के बजाय सरकार की नाकामी गिनाने के लिए सामने आना पड़ा। आयोग सरकार के खिलाफ कोर्ट तक पहुंच गया। उससे गंभीर बात यह है कि सरकार आखिर करना क्या चाहती है। एक तरफ दावा कर रही थी कि चुनाव समय पर संपन्न हो जाएंगे। दूसरी तरफ चुनाव आयोग को ईवीएम और दूसरे संसाधन जुटाने के लिए बजट ही नहीं दिया। इससे एक बात तो साफ है कि सरकार और सरकार के नौकरशाह पूरी तरह से डबल इंजन की सरकार को संभाल नहीं पा रहे हैं। हर कोई पटरी से बाहर निकला जा रहा है। चुनाव आयोग ने सरकार पर यह गंभीर आरोप भी लगाया कि सरकार तय समय पर चुनाव नहीं करवाना चाहती है। सरकार के उन दावों की पोल भी खोलकर रख दी, जिनमें सरकार ने परिसीमन पूरा कर चुनाव कराने के दावे किए थे। चुनाव आयोग के सामने आने के बाद एक और गंभीर बात यह भी सामने आ रही है कि आखिर सरकार के हवाले से शोसल मीडिया और तमाम खबरी पोर्टलों पर खबरें कहां से आ रही थी। कहीं ऐसा तो नहीं सरकार खुद ही फेक न्यूज चलवाकर माहौल बनाने की कोशिश कर रही थी, जिसका भांडा अब चुनाव आयोग ने फोड़ दिया है।
डबल इंजन सरकार को यहां से गंभीरता से सोचने की जरूरत है। हाल ही में मेडीकल काॅलेज फीस का मामला भी सामने आया था। मुख्यमंत्री को कैबिनेट का फैसला वापस लेना पड़ा था। असल बात यह है कि आखिर मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट में मेडीकल काॅलेजों को फीस बढ़ाने की खुली छूट देने के प्रस्ताव पर जब मुहर लगाई जा रही थी। तब क्यों इस पर विचार नहीं किया गया। और भी कई ऐसे वाकये हो चुके हैं, जिनसे सरकार को पीछे हटना पड़ा। मुख्यमंत्री की छवि चाहे जितनी भी साफ क्यों न हो, उनको हरीश रावत की तारफी से खुश होने की जरूरत तो विल्कुल भी नहीं होनी चाहिए। उसका कारण यह है कि सीएम के आसपास ऐसे लोगों का जमावड़ा लगा है, जो उनको दूसरी दिशा में ले जाने की कोशिश करते हैं और किसी हद तक कामयाब भी हो जाते हैं। सवाल यह है कि क्या सीएम को कई बार इस तरह के मौके आने के बाद आत्मचिंतन नहीं करना चाहिए।