देहरादूनः भले ही आज पहाड़ से लोग पलायन कर शहरों की तरफ दौड़ आए हों, लेकिन उनके दिलों में आज भी संस्कृति जिंदा है। उन्होंने अपनी संस्कृति व परम्परा को जीवित रखा है, अपने संस्कारों में, अपने रिवाजों में।
तभी तो आज भी 21वीं सताब्दी में हमें वही गांव का नजारा मैदानी क्षेत्रों में देखने को मिल रहा है, जिसका ताजा उदाहरण हमें कुंजापुरी विहार अजबपुर खुर्द में देखने को मिला।
यहां शाम होते ही लोगों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया। चाय की चुस्कियों के साथ ईगास का कार्यक्रम शुरू किया गया। परम्परागत तरीके से पहले ढ़ोल-दमाउ और भैलों की पूजा अर्चना की गई। फिर शुरू हुआ अपनी संसकृति और उसकी परम्परा को दिखाने का समय। क्या जवान, क्या बच्चा और क्या बूढ़ा, सभी ने भैला घुमाकर और ढोल की थाप पर जमकर थिरकना शुरू कर दिया।
इस दौरान एक बुर्जुग महिला ने हैलो उत्तराखंड न्यूज के साथ उस जमाने के गीत भी गाए, जो ईगास के दौरान गाए जाते थे। बुर्जुग महिला ने वह गीत भी लगाया जो गढ़वाल के महान योद्धा और माधो सिंह मलेथा के नाम से प्रसिद्ध माधव सिंह भण्डारी की बहन ने अपने भाई के घर वापस न आने के दुख पर गाया था।
इस दौरान युवाओं में भी ईगास को लेकर खासा उत्साह देखने को मिला। युवाओं ने भी जमकर भैलो घुमाया और इस पर्व का लुत्फ उठाया।
युवा सचिन थपलियान का कहना है कि इस तरह के आयोजनों से नजर आता है कि उत्तराखंड की संस्कृति आज भी हमारे दिलों में जिदा है और हमें भी गर्व महसूस होता है इन कार्यक्रमों में भाग लेने पर।
बता दें कि ईगास गढ़वाली समाज द्वारा दीपावली के ठीक 11 दिन बात आयोजित किया जाता है। जिसे छोटी दीपावली की ही तर्ज पर मनाया जाता है, और पूरा गढ़वाली समाज मिलकर पारम्परिक तरीके से खुशियां बांटता है।
देखा जाए तो हमें कई बार कहने और सुनने को मिल जाता है कि अब उत्तराखंड की संस्कृति कहां बची है। लेकिन समाज में ऐसे ही छोटे से कार्यक्रमों में हमें नजर आ सकता है कि आज भी हमारी संस्कृति, परम्परा और वही जुनून हमारे समाज के लोगों में अब भी है, जो पहले था। जो हमें गौरान्वित करता है।