नई दिल्ली। सर्वधर्म सम्भाव का नारा देने वाले मौलाना आजाद कहा करते थे कि संगीत जिसे गुदगुदा नहीं पाता, वह इंसान या तो बीमार है या फिर उसमें संयम नहीं है। वह इंसान आध्यात्मिकता से दूर है और पक्षियों और जानवरों से भी कम-समझ रखता है क्योंकि मधुर आवाजों से तो सभी प्रभावित हो जाते हैं।
इतिहास के झरोखों से देखने पर मालूम होता है कि जिन हालात में देश का विभाजन हुआ था, ‘मुस्लिम-लीग और जिन्नाह इस्लाम खतरे में है’, के जिस नारे से देश के मुसलमानों में, हिंदुओं के खिलाफ जहर भर रहे थे, उस माहौल का ये कहना, मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है। मैं भारतीय राष्ट्रीयता की अटूट-एकता का हिस्सा हूं, मैं इस महान-संरचना का अनिवार्य अंग हूं, मेरे बिना यह शानदार-ढांचा अधूरा है, यकीनन हैरत में डाल देता है।
मक्का (अरब) में पैदा हुआ (11 नवंबर-1888), रूढ़िवादी इस्लामी विषयों में शिक्षित एक मौलाना और कुरान-शरीफ का अनुवाद करने वाला मौलाना-आजाद के ऐसे बयानात पढ़ने पर अक्सर मन में आता है कि वह बड़े साहसी व्यक्ति थे। लेकिन थोड़ा गौर करें तो इसमें साहस जैसी कोई बात नहीं दिखती, यह दरअसल समझ की बात है, जो शिक्षा से आती है। यह आजाद-भारत की खुशनसीबी है कि उसे अपने पहले शिक्षा-मंत्री के रूप में मौलाना अबुल कलाम आजाद मिले, जिन्होंने अगले 11 बरस तक हमारी तालीम के पौधे को एक होनहार माली की तरह देखा-भाला।
मौलाना-आजाद ने किसी मौके पर कहा था, दिल से दी गई शिक्षा समाज में इंकलाब ला सकती है, लेकिन यह भी सच है, कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। मौलाना मुस्लिम-शिक्षा के क्षेत्र में जो कुछ करना चाहते थे, नहीं कर पाए। इस्लामी-शिक्षा के लिए खोले गए मदरसों से वह इसी दिल की उम्मीद रखते थे, लेकिन कठमुल्ला जेहेनियत ने उन्हें हर मोड़ पर पराजित किया। वह मदरसों में फैले अंधेरे को इल्म की रोशनी नहीं बांट सके।
भारत की आजादी के बाद वे एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिज्ञ रहे। वे महात्मा गांधी के सिद्धांतो का समर्थन करते थे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया, तथा वे अलग मुस्लिम राष्ट्र (पाकिस्तान) के सिद्धांत का विरोध करने वाले मुस्लिम नेताओ में से थे। खिलाफत आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1923 में वे भारतीय नेशनल काग्रेंस के सबसे कम उम्र के प्रेसीडेंट बने। सन 1940 और 1945 के बीच काग्रेंस के प्रेसीडेंट रहे। आजादी के बाद वे भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के रामपुर जिले से 1952 में सांसद चुने गए और वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। आजाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ थे। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को आम आदमी के शोषण के लिए जिम्मेवार ठहराया।
आजाद की शिक्षा उन्हे एक दफातर (किरानी) बना सकती थी पर राजनीति के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें पत्रकार बना दिया। उन्होने 1912 में एक उर्दू पत्रिका अल हिलाल का सूत्रपात किया। उनका उद्देश्य मुसलमान युवकों को क्रांतिकारी आन्दोलनों के प्रति उत्साहित करना और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देना था। उन्हें 1920 में राँची में जेल की सजा भुगतनी पड़ी।
जेल से निकलने के बाद वे जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोधी नेताओं में से एक थे। इसके अलावा वे खिलाफत आन्दोलन के भी प्रमुख थे। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया।