… प्रदीप रावत (रवांल्टा)
लगता है सरकार उन दिनों को भूल गई, जब आग बुझाने के लिए हेलीकाॅप्टरों के सहारे पानी की बौछारें करनी पड़ी थी। जंगल बचाने की कई योजनाएं कागजों में दौड़-दौड़ कर हांफ गई। अब उनसे दौड़ा भी नहीं जा रहा। जंगल बचाने का बजट भी ठिकाने लग चुका होगा। वनों को बचाने वाले और वन्यजीवों की रक्षा करने वाले अपने तहखानों में सो रहे हैं और जंगलों के साथ वन्य जीव भी जल-मर रहें हैं। अगर ऐसा ही रहा तो लोगों के मरने में भी कम ही देर बची है। बावजूद सरकार और वन महकमा सो रहा है।
प्रदेश के जंगल इन दिनों आग से स्वाहा हो रहे हैं। काली कुमाऊं से लेकर ओसला-गंगाड़ तक हर तरह जंगलों में आग की लपटें लोगों को डरा रही हैं। वन संपदा को निगल रही हैं। वन्य जीवों को जला रही हैं। सरकार को सब पता है, लेकिन एसी की ठंडक में उनको जंगलों में लगी आग की गर्मी महसूस नहीं हो रही है। उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली से लेकर लगभग हर जिले के जंगल आग से जल रहे हैं।
फायर सीजन शुरू होने से पहले खूब दावे किए गए। फायर लाइन भी बनाई गई। अधिकारियों ने एसी कमरों से कागज के पन्नों पर आदेश भी बनाए, लेकिन अब जब आग से जंगल जल रहे हैं, तो कुछ भी नजर नहीं आ रह। अगर कर्मचारी कोशिश कर भी रहे हैं, तो उनकी भी मजबूरी है। बेचारे पेड़ों की टहनियों से आग बुझाने में जुटे हैं। सवाल यह है कि जब आग बुझाने के लिए करोड़ों का बजट खर्च किया जाता है, फिर आग बुझाने के उपकरण क्यों नहीं खरीदे जाते ? जब आग शुरूआत में होती है, उस समय आग बुझाने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता ? आग के विक्राल रूप धारण करने के बाद ही सरकार और वन महकमा क्यों जागता है ?
वन मंत्री शेर-ए-गढ़वाल को नाम लेकर किसी गुफा में गुम हो गए। जंगल आग से धधक रहे हैं और मंत्री लापता। क्या सरकार तब जागेगी, जब जंगलों की आग गांव तक पहुंच कर किसी की जान ले लेगी ? क्यों इंतजार किया जा रहा है ? यह समझ से परे है। वन विभाग के आला अधिकारियों को भी कोई फर्क पड़ता नजर नहीं आ रहा है।
सरकार को यह करना चाहिए कि जहां तक आग सड़क के आसपास हो, उन जगहों पर फायर सर्विस की मदद लेकर आग को बुझाया जाए। लेकिन, फिलहाल सरकार की ऐसी कोई मंशा नजर नहीं आ रही। देखते हैं, सरकार, सरकार के मंत्री और अधिकारी कब तक सोते रहते हैं…?