रुद्रप्रयाग: केदारघाटी में इन दिनों ढोल-दमाऊ की थाप पर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित ग्रामीणों को आकर्षक नृत्य करते हुए देखा जा सकता है। अवसर है पाण्डवकालीन ऐतिहासिक गाथा को नई पीढ़ी से रूबरू कराने का।
मान्यता है कि स्वर्गारोहण से पहले पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र व वस्त्र केदारघाटी के लोगों को दान दिये थे और उनसे वचन लिया था कि समय-समय पर उनके शस्त्रों का प्रदर्शन करते रहेंगे और इसी परंपरा का निर्वहन आज भी जारी है।
पांडव लीला को जनपद में बड़े ही भव्य रूप से आयोजित किया जाता है और एक माह तक यह सामूहिक आयोजन होता है। इस दौरान पांडवों के अस्त्र -शस्त्रों का आकर्षक नृत्य व ऐतिहासिक चक्रब्यूह का आयोजन किया जाता है।
केदारघाटी में पांडवों का लम्बा इतिहास रहा है। कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद जब पाण्डवों पर गोत्र हत्या का अभिशाप लगा तो वे मोक्ष की प्राप्ति के लिए हिमालय की ओर आये, यहां उन्होंने कुछ दिन गुजारे जिसके प्रमाण आज भी मिलते हैं। चाहे केदारनाथ मंदिर हो या फिर पांडव सेरा, इस तरह के कई ऐतिहासिक स्थल यहां मौजूद है जिससे पांडव कालीन इतिहास का पता लगता है।
मान्यता यह भी है कि भगवान शिव ने जब केदारनाथ में पांडवों को भैंसे के रूप में दर्शन दिए तब उनका स्वर्गारोहिणी का मार्ग प्रशस्त हुआ था। स्वर्गारोहिणी के लिए पांडवों को सांसारिक भोगों को त्यागना था। तब पांडवों ने केदारघाटी के लोगों को अपने अस्त्र-शस्त्र व वस्त्रों को दिया और वचन लिया कि इन शास्त्रों का ध्यान रखना व तीज त्यौहारों पर इनका प्रदर्शन करना। यही कारण है कि आज भी यह परंपरा लगातार जारी है।
जिले के तुंगनाथ फलासी, रुद्रप्रयाग, दरमोला, बनियानी, कण्डारा, जलई, नारायणकोटि, पौंठी, जखोली समेत दर्जनों ग्राम पंचायतें हैं जहां पर इस ऐतिहासिक लीला का आयोजन किया जाता है। जिसके लिए ग्रामीण पूरी तैयारियों के साथ इस आयोजन को करते हैं।
केदारघाटी की जनता आज भी पांडवों की धरोहरों को संजोये हुए हैं। उनके दिये हुए अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-अर्चना कर रहे हैं और समय-समय पर पांडव नृत्य और पांडव लीलाओं का भी आयोजन कर रहे हैं। सरकार को भी चाहिए कि इन पौराणिक आयोजनों को प्रदेश स्तर पर ख्याति मिल सके और रम्माण की तर्ज पर पाण्डव नृत्य को भी विश्व धरोहर का दर्जा मिल सके।