कुमाँऊ शब्द की उत्पत्ति कुर्मांचल से हुई है जिसका मतलब है कुर्मावतार (भगवान विष्णु का कछुआ रूपी अवतार) की धरती। कुमाँऊ मध्य हिमालय में स्थित है, इसके उत्तर में हिमालय, पूर्व में काली नदी, पश्चिम में गढवाल और दक्षिण में मैदानी भाग हैं। इस क्षेत्र में ‘कत्यूरी’ और ‘चंद’ राजवंश के वंशजों के द्धारा राज किया गया। उन्होंने इस क्षेत्र में कई मंदिरों का भी निर्माण किया जो आजकल सैलानियों (टूरिस्ट) के आकर्षण का केन्द्र भी हैं। कुमाँऊ का पूर्व मध्ययुगीन इतिहास ‘कत्यूरी’ राजवंश का इतिहास ही है, जिन्होंने 7 वीं से 11 वीं शताब्दी तक राज किया। इनका राज्य कुमाँऊ, गढवाल और पश्चिम नेपाल तक फैला हुआ था। अल्मोडा शहर के नजदीक स्थित खुबसूरत जगह बैजनाथ इनकी राजधानी और कला का मुख्य केन्द्र था। इनके द्धारा भारी पत्थरों से निर्माण करवाये गये मंदिर वास्तुशिल्पीय कारीगरी की बेजोड मिसाल थे। इन मंदिरों में से प्रमुख है ‘कटारमल का सूर्य मंदिर’ । अल्मोडा शहर के ठीक सामने, पूर्व की ओर पहाडी पर स्थित इस मंदिर की काफी मान्यता हैं। 900 साल पुराना ये मंदिर, अस्त होते ‘कत्यूरी’ साम्राज्य के वक्त बनवाया गया था। कुमाँऊ में ‘कत्यूरी’ साम्राज्य के बाद पिथौरागढ के ‘चंद’ राजवंश का दौर शुरू हुआ। जागेश्वर का प्रसिद्ध शिव मंदिर इन्ही के द्धारा बनवाया गया था, इसकी परिधि में छोटे बडे, कुल मिलाकर 164 मंदिर हैं।
ऐसा माना गया है कि ‘कोल’ कुमाँऊ के मूल निवासी थे, द्रविडों से हारे जाने पर उनका कोई एक समुदाय बहुत पहले कुमाँऊ आकर बस गया। आज भी कुमाँऊ के शिल्पकार उन्हीं ‘कोल’ समुदाय के वंशज माने जाते हैं। बाद में ‘खस’ समुदाय के काफी लोग मध्य एशिया से आकर यहाँ के बहुत हिस्सों में बस गये। कुमाँऊ की ज्यादातर जनसंख्या इन्हीं ‘खस’ समुदाय की वंशज मानी जाती है। ऐसी कहावत है कि बाद में ‘कोल’ समुदाय के लोगों ने ‘खस’ समुदाय के सामने आत्मसमर्पण कर इनकी संस्कृति और रिवाज अपनाना शुरू कर दिया। ‘खस’ समुदाय के बाद कुमाँऊ में ‘वैदिक आर्य’ समुदाय का आगमन हुआ। स्थानीय राजवंशों के इतिहास की शुरूआत के साथ ही यहाँ के ज्यादातर निवासी भारत के तमाम अलग अलग हिस्सों से आये और ‘सवर्ण या ऊंची जात’ से प्रभावित होने लगे। आज के कुमाँऊ में ब्राह्मण, राजपूत, शिल्पकार, शाह जो कभी अलग वर्ण माना जाता था, आज सभी जाति या वर्ण के लोग इसका हिस्सा हैं।
कटारमल सूर्य मन्दिर उत्तराखंड में अल्मोड़ा के ‘कटारमल’ नामक स्थान पर स्थित है। इस कारण इसे ‘कटारमल सूर्य मंदिर’ कहा जाता है। यह सूर्य मन्दिर न सिर्फ़ समूचे कुमाउँ मंडल का सबसे विशाल, ऊँचा और अनूठा मन्दिर है, बल्कि उड़ीसा के ‘कोणार्क का मंदिर ‘ के बाद एकमात्र प्राचीन सूर्य मन्दिर भी है। ‘भारतीय पुरातत्व विभाव’ द्वारा इस मन्दिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया जा चुका है। सूर्य देव प्रधान देवताओं की श्रेणी में आते हैं। वे समस्त सृष्टि के आधार स्वरूप हैं। संपूर्ण भारत में भगवान सूर्य देव की पूजा, अराधना बहुत श्रद्धा एवं भक्ति के साथ की जाती है। इस सूर्य मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। यह मंदिर कोणार्क के विश्वविख्यात सूर्य मंदिर से लगभग दो सौ वर्ष पुराना माना गया है। मंदिर नौवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ माना जाता है। इस मंदिर की स्थापना के विषय में विद्वानों में कई मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार समय-समय पर होता रहा है। यह सूर्य मंदिर सूर्य मंदिर को समर्पित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कटरामल के एक राजा ने करवाया था। प्रारंभिक मध्ययुगिन काल में कुमाऊँ में कत्यूरी राजवंश का शासन था, जिन्होंने इस मंदिर के निर्माण में योगदान दिया था।
वही दूसरी ओर गोलू देवता की प्रसिद्धि पहाड़ों में अप्रतिम है। गोलू देवता या भगवान ग्वेल ज्यू को यूं तो समूचे उत्तराखंड में पूजा जाता है, लेकिन कूर्मांचल यानी कुमाऊं के वह लोक देवता हैं। गोलू देवता उत्तराखंड के न्याय के देवता हैं। जब वह यहां के राजा थे तो जगह-जगह घूम-घूम कर जन-अदालतें लगा कर त्वरित न्याय करते थे। उन्हें कृष्णावतारी, दूधाधारी और न्यायकारी देवता भी कहा जाता है। नैनीताल जिले के घोड़ाखाल में प्रसिद्घ गोलू देवता का मंदिर घंटियों से सुशोभित है। लोगों का मानना है कि यह देवता न्याय करते ही हैं, जिन्हें कहीं से न्याय न मिले वह गोलू देवता की शरण में पहुंचते हैं । मान्यता है कि वह अपने भक्तों द्वारा सच्चे मन से की गई हर पुकार को सुनते हैं। यही वजह है कि इस मंदिर में हर रोज बड़ी संख्या में भक्तजन मन्नतें मांगने और उन मन्नतों के पूरा होने पर घंटियां बांधने आते हैं। अल्मोड़ा घूमने के लिए आने वाले सैलानियों के लिए भी यहां आना एक आनंददायक अनुभव होता है।