देहरादून-बबीता रयाल
किसी प्रदेश की संस्कृति और वहाँ रहने वाले लोगों के बीच एक अटूट सम्बन्ध होता है। प्राकृतिक विविधता एवं हिमालय का अद्वितीय सौंदर्य व् पवित्रता ‘उत्तराखंड की संस्कृति’ में एक नया आयाम जोड़ देते हैं। यहाँ के लोग और यहाँ की संस्कृति में भी उत्तराखंड के विविध भू दृश्य की विविधता के दर्शन होते है। उत्तराखंड की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा की जड़े मुख्य रूप से धर्म से जुड़ी हुईं हैं। संगीत ,नृत्य एवं कला यहाँ की संस्कृति को हिमालय से जोड़ती है । उत्तराखंड की नृत्य शैली जीवन और मानव अस्तित्व से जुडी है और असंख्य मानवीय भावनाओं को प्रदर्शित करती है। “लंगविर” यहाँ की एक पुरुष नृत्य शैली है जो शारीरिक व्यायाम से प्रेरित है। “बराड़ा” देहरादून क्षेत्र का एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है, जो कुछ विशेष धार्मिक त्योहारों के दौरान किया जाता है। इनके अलावा हुरका बोल, झोरा-चांचरी, झुमैला, चौफुला और छोलिया आदि यहाँ के जाने माने नृत्य हैं।
संगीत उत्तराखण्ड की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। मंगल,बसन्ती ,खुदेड़ आदि यहाँ के लोकप्रिय लोकगीत है। “बेडू पाको” राज्य का अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक प्राचीन लोक गीत है। पारम्परिक रूप से उत्तराखण्ड की महिलाएं घाघरा तथा आंगड़ी और पूरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते है। विवाह आदि शुभ कार्यो के अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परम्परा है। गले में गलोबन्द, चर्यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनने की परम्परा है। सिर में शीषफूल, हाथों में सोने या चाँदी के पौंजी तथा पैरों में बिछुए, पायजब, पौंटा पहने जाते हैं। घर परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परम्परा है। विवाहित औरत की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का भी यहाँ चलन आम है। देवी – देवताओं से लेकर अंछरियों (अप्सराओं) और भूत-पिशाचों तक की पूजा धार्मिक नृत्यों के अभिनय द्वारा सम्पन्न की जाती है। इन नृत्यों में गीतों एवे वाद्य यंत्रों के स्वरों द्वारा देवता विशेष पर अलौकिक कम्पन के रूप में होता है। कम्पन की चरमसीमा पर वह उठकर या बैठकर नृत्य करने लगता है, इसे देवता आना कहते हैं। जिस पर देवता आता है, वह पस्वा कहलाता है। ‘ढोल दभाऊँ’ के स्वरों में भी देवताओं का नृत्य किया जाता है, धार्मिक नृत्य की चार अवस्थाएँ है:
1. विशुद्ध देवी देवताओं के नृत्य: ऐसे नृत्यों में ‘जागर’ लगते हैं उनमें प्रत्येक देवता का आह्वान, पूजन एवं नृत्य होता है। ऐसे नृत्य यहां 40 से ऊपर है, जिसमें निरंकार (विष्णु), नरसिंह (हौड्या), नागर्जा (नागराजा-कृष्ण), बिनसर (शिव) आदि प्रसिध्द है।
2. देवता के रूप में पाण्डवोंका पण्डौं नृत्य: पाण्डवों की सम्पूर्ण कथा को वातारूप में गाकर विभिन्न शैलियों में नृत्य होता है। सम्पूर्ण उत्तरी पर्वतीय शैलियों में पाण्डव नृत्य किया जाता है। कुछ शैलियां इस प्रकार है (1) कुन्ती बाजा नृत्य, (2) युधिष्ठिर बाजा नृत्य, (3) भीम बाजा नृत्य, (4) अर्जुन बाजा नृत्य, (5) द्रौपदी बाजा नृत्य (6) सहदेव बाजा नृत्य, (7) नकुल बाजा नृत्य।
3. मृत अशान्त आत्मा नृत्य: मृतक की आत्मा को शान्त करने के लिए अत्यन्त कारूणिक गीत ‘रांसो’ का गायन होता है और डमरू तथा थाली के स्वरों में नृत्य का बाजा बजाया जाता है। इस प्रकार के छ’ नृत्य है – चर्याभूत नृत्य, हन्त्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और दल्या भूत नृत्य।
4. रणभूत देवता: युद्ध में मरे वीर योद्धा भी देव रूप में पूजे तथा नचाए जाते है। बहुत पहले कैत्यूरों और राणा वीरों का घमासान युद्ध हुआ था। आज भी उन वीरों की अशान्त आत्मा उनके वंशजों के सिर पर आ जाती है। भंडारी जाति पर कैंत्यूर वीर और रावत जाति पर राणारौत वीर आता है। आज भी दोनों जातियों के नृत्य में रणकौशल देखने योग्य होता है। रौतेली, भंजी, पोखिरिगाल, कुमयां भूत और सुरजू कुंवर ऐसे वीर नृत्य धार्मिक नृत्यों में आते हैं
यहाँ सुन्दर चित्रकारी और भित्ति चित्र, घरों और मंदिरों दोनों को सजाने के लिए इस्तेमाल किये जाते है। पहाड़ी चित्रकला शैली 17 वीं और 19 वीं सदी के बीच इस क्षेत्र में विकसित हुई है। गुलेर राज्य कांगड़ा चित्रों का उद्गम स्थल के रूप में प्रसिद्ध था। गढ़वाली कला, प्रकृति के लिए अपनी निकटता के लिए जानी जाती है, जबकि कुमाऊंनी कला अक्सर प्रकृति में ज्यामितीय होती है। ऊनी शॉल, स्कार्फ, सोने के आभूषण, गढ़वाली टोकनी दस्तकारी आदि उत्तराखंड के अन्य शिल्प हैं। उत्तराखंड का प्राथमिक खाद्य, गेहूं और सब्जियों है। हालांकि उत्तराखंड के भोजन की एक विशेषता है कि यहाँ टमाटर, दूध और दूध आधारित उत्पादों का इस्तेमाल बहुत होता है। मडुआ या झिंगोरा अनाज उत्तराखंड की एक स्थानीय फसल है जो विशेष रूप से कुमाऊं और गढ़वाल के आंतरिक क्षेत्रों में होती है। “बाल मिठाई” यहाँ का एक लोकप्रिय व्यंजन है। दुबूक, काप, गुलगुला, सेई आदि यहाँ के अन्य लोकप्रिय व्यंजन है।
हिंदु पौराणिक ग्रंथो के अनुसार, समुद्र मंथन से जो अमृत निकला था, उसकी कुछ बुँदे हरिद्वार ,उज्जैन ,नासिक और प्रयाग में गिरी थीं। इसीलिए प्रत्येक 12 वर्ष बाद, हरिद्वार मे कुम्भ मेला का आयोजन किया जाता है। संध्या के समय यहाँ प्रतिदिन गंगा नदी की भव्य आरती की जाती है । उसके उपरांत गंगा नदी मे भक्तों द्वारा दीप प्रवाहित किए जाते है। सभी दीपों की ज्योति से पूरा तट जगमगाने लगता है ।
इस प्रकार उत्तराखंड की संस्कृति अपने अंदर हिमालय और गंगा नदी के अदभुत सौंदर्य को समेटे हुए, आज भी प्राचीन धार्मिक परम्पराओ को सहेजे हुए है।