उत्तराखंड एक तरफ़ अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है, तो दूसरी तरफ़ यहाँ के वीर पुरुषों के लिए भी प्रसिद्ध है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं गढ़वाल के एक महान सेनापति, योद्धा और कुशल इंजीनियर माधोसिंह भंडारी के बारे में जो यहाँ के वीर पुरुषों में से एक हैं। माधो सिंह भंडारी जिन्हें माधो सिंह मलेथा भी कहा जाता है। उनका जन्म सन् 1595 के आसपास उत्तराखंड राज्य के टिहरी जनपद के मलेथा गांव में हुआ था। मलेथा गांव देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है। माधो सिंह भंडारी श्रीनगर गढ़वाल के शाही दरबार के राजा महीपत शाह के तीन बहादुर सेनापतियों, माधोसिंह के अलावा रिखोला लोदी और बनवारी दास, में से एक थे, लेकिन इन तीनों में माधोसिंह ही ऐसे थे, जिन्हें गढ़वाल और कुमांऊ के योद्धाओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। माधो सिंह भंडारी कम उम्र में ही सेना में भर्ती हो गये थे और अपनी वीरता व युद्ध कौशल से सेनाध्यक्ष के पद पर पहुंचे। कहते हैं कि कुछ लोग अपनी तकदीर को अपने हाथों से लिखते हैं और कुछ लोग अपने हाथों से अपने भाग्य को लिखते हैं यही माधो ने किया, उन्होने कई नई क्षेत्रों में राजा के राज्य को बढ़ाया और कई किले बनवाने में मदद की। वीर माधो की वीरता से राजा ने खुश होकर उन्हे सेनापति बनाकर तिब्बत भेज दिया। तिब्बत में माधो ने अपना परचम लहराया, उन्होने भारत और तिब्बत के बीच सीमा रेखा तय की थी और गढ़वाल राज्य को चारो ओर फैलाया। एक बार जब माधो सिंह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उन्होंने अपनी पत्नी से खाने देने को कहा तो उन्हें केवल रूखा सूखा खाना दिया गया। जब माधोसिंह ने कारण पूछा तो पत्नी ने ताना दिया कि जब गांव में पानी ही नहीं है तो सब्जियां और अनाज कैसे पैदा होगा? माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधो ने चंद्रभागा धारा का पानी मलेथा के खेतों(अब स्यारों) में लाने की युक्ति सोची। माधोसिंह ने पहाड़ के बीच सुरंग बनाकर पानी को गांव में लाने का ठाना । कहा जाता है कि उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे। माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे, लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है। इस सुरंग से माधोसिंह के बेटे गजेसिंह का नाम भी जोड़ा जाता है। इसको लेकर दो तरह की कहानियां हैं। पहली कहानी के अनुसार माधोसिंह ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह गजेसिंह को उस स्थल पर नहीं आने दे जहां सुरंग खोदी जा रही थी। एक दिन जिद करके गजेसिंह वहां पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुंचा था जहां पर गजेसिंह की मौत हुई थी।
दूसरी कहानी इसके ठीक विपरीत हैं। कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा। कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह की छुट्टियां खत्म हो गयी और वह वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे, लेकिन उन्होंने गांव को जो सौगात दी उसकी वजह से मलेथा आज भी हरियाली से भरा खुशहाल गांव बना हुआ है।
माधोसिंह को इसके बाद तिब्बती सेना से लड़ने के लिये भेजा गया जो गढ़वाल की तरफ बढ़ रही थी। इसी समय छोटा चीनी युद्ध के दौरान माधोसिंह की मौत हुई थी। उनकी मौत को लेकर भी एक किस्सा कहा जाता है जिसका जिक्र महान इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल का इतिहास’ में किया है। कहा जाता था कि तिब्बती सैनिक माधोसिंह के नाम से ही घबराते थे। माधोसिंह विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन इस बीच रोग लगने से उनका निधन हो गया। अपनी मौत से पहले माधोसिंह ने अपने सेना से कहा कि यदि तिब्बतियों को पता चला कि उनकी मौत हो गयी है तो वे फिर से आक्रमण कर देंगे, इसलिए यह खबर किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। और मेरे शव को हरिद्वार ले जाकर दाह करना। सैनिकों और सरदारों ने ऐसा ही किया और हरिद्वार में माधोसिंह का दाह संस्कार करके उसकी सूचना श्रीनगर दरबार को दी।
माधोसिंह के लिए गढ़वाल में यह छंद काफी प्रसिद्ध है….
एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का।
एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।।
(यानि एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।)
आज से कई सौ सालों पहले शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान का अभाव था। ऐसे समय में माधोसिंह भंडारी ने अपनी उत्कृष्ट तकनीकी के साथ इस सुरंग का निर्माण कर इतिहास में त्याग, तपस्या और बलिदान की सच्ची मिसाल कायम की। धन्य है वह मलेथा की धारा जहाँ माधो सिंह जैसे वीरों का जन्म हुआ। आज मलेथा गांव समृद्ध व हरा भरा है और उस गांव के लोग अभी भी अपने नायक माधो सिंह को नहीं भूले हैं। माधों सिंह द्वारा बनायी गयी नहर आज भी मलेथा तक पानी पहुंचा रही है।