धुंधले इतिहास को समेटे जौलजीबी मेला पूरे शबाब पर

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मनोज चंद, पिथारौगढ़ः काली और गौरी नदी के संगम पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय जौलजीबी व्यापार मेला इन दिनों पूरे शबाब पर है। जौलजीबी मेला आज भले ही एक व्यापारिक मेले के तौर पर अपनी पहचान बना चुका है मगर, इसकी शुरूआत एक धार्मिक मेले के रूप में हुई थी। अस्कोट रियासत के राजा उत्सव पाल ने 1758 में इस मेले की शुरूआत की। धीरे धीरे ये मेला धार्मिक मेला से व्यापारिक मेले में तब्दील हो गया।

इतिहास गवाह है कि पिछली एक शताब्दी से जौलजीबी मेले को अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मेले के रूप में ख्याति मिली है। 1758 में अस्कोट रियासत के राजा उत्सव पाल ने इस मेले का आगाज किया। उसके बाद 1871 में पाल वंश के अगले राजा पुष्कर पाल ने काली और गौरी नदी के संगम पर ज्वालेश्वर महादेव मंदिर की नींव रखी। धीरे-धीरे यह धार्मिक मेला पुष्कर पाल के शासन के दौरान ही अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में तब्दील हो गया। सम्पूर्ण भारत समेत नेपाल और तिब्बत के व्यापारी भी यहां व्यापार करने आने लगे। पुष्कर पाल के बाद अस्कोट रियासत की गद्दी संभालने वाले गजेन्द्र पाल और विक्रम पाल ने इस व्यापारिक मेले का संचालन बखूबी निभाया।

युवराज टिकेन्द्र के नाबालिग होने के कारण 1938 से 1947 तक अस्कोट रियासत का कामकाज अंग्रेजों के हाथ में था। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व 9 वर्षों तक मेले का संचालन अंग्रेजी हुकूमत के हाथ में रहा। 1967 में रियासत के भारत में विलय होने तक राजा टिकेन्द्र पाल ने मेले का संचालन किया। 1974 तक पाल रियासत के वारिसों के हाथ में ही मेले की बागडोर थी। पाल राजवंश के पास मौजूद दस्तावेज भी इस बात की तस्दीक करते है। राजा टिकेन्द्र पाल के पुत्र कुंवर भानुराज पाल बताते हैं कि वर्ष 1975 में यूपी सरकार ने मेले को अपने हाथों में लिया। तब से यह मेला देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन पर 14 नवम्बर से मनाया जाने लगा। 1962 से पूर्व तिब्बती व्यापारी इस मेले में स्वतंत्र रूप से शिरकत करते थे। लेकिन भारत चीन युद्ध के बाद से तिब्बती व्यापारियों का जौलजीबी मेले में आना बंद हो गया।

आज भले ही तिब्बती व्यापारी इस अन्तरराष्ट्रीय व्यापार मेले में शिरकत नहीं करते मगर, भारत चीन स्थलीय व्यापार के जरिये भारतीय व्यापारियों द्वारा तिब्बत से आयात किया गया माल जौलजीबी मेले में बेचा जाता है। इस मेले में तिब्बती सामान की भारी खरीद फरोख्त होती है। यहां नेपाल के हुमला जुमला के घोड़ों की मेले में खास डिमांड रहती थी। आज भी यूपी के शहरों से घोड़े खरीदने के लिए लोग जौलजीबी मेले में शिरकत करते है। स्थानीय बुजुर्ग बताते है कि अल्मोड़ा, चम्पावत और मथूरा से पीतल कांसे और तांबे के बर्तन बेचने के लिए भी व्यापारी इस मेले में आते थे। जो बर्तन मेले में नहीं बिक पाते थे उसे पाल राजा खरीद लिया करते थे और इस प्रकार व्यापारियों का पूरा माल जौलजीबी मेले में बिक जाया करता था। नेपाल के व्यापारियों को मेले से जोड़ने के लिए पाल राज अस्थाई पुल का निर्माण किया करते थे।

जौलजीबी के इस ऐतिहासिक मेले में एक दौर में सेना भर्ती मेला भी लगा करता था। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा अब इस राजकीय मेले का संचालन 10 दिनों तक किया जाएगा। जिसमें भारत और नेपाल के व्यापारी अपना माल बेचेंगे।

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