जानिए ऐसे अनूठे खेल के बारे में जिसमें नहीं होती प्लेयरों की सीमित संख्या

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मनोज चंद, पिथौरागढ़। उत्तराखंड अपनी ससीम सुंदरता संजोए हुए है। यहां के हर जिले की अनोखी व अनूठी परम्पराएं हैं। उत्तराखंड की हर घाटी के अलग रीती-रिवाज हैं और अलग-अलग भांति के लोगों की अपनी-अपनी अलग-अलग परम्पराएं।

उन्हीं परम्पराओं में से एक है नेपाल की बॉडर पर स्थित बैतडी की। यहां नेपाली समुदाय के लोग अपनी परम्परा को 12वीं सताब्दी से भी पहले से मनाते आ रहे है। जहां दो समुदायों के बीच एक ऐसा खेल खेला जाता है जिसके बारे में आपको सुनकर और देखकर थोड़ा अजीब लगेगा। लेकिन इस खेल की भी अनूठी परम्परा और तरीका है।

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आपने सभी खेलो में खेले जाने के लिए सीमित संख्या के बारे में सुना होगा, लेकिन जो खेल यहां के बासिंदें खेलते हैं वो कुछ अलग ही है। जी हां यहां जो खेल खेला जाता है उसमें कुछ गिने-चुने खिलाड़ी नहीं होते बल्कि इसमें हजारों की संख्या में भी यह खेल खेला जाता है और इस खेल का नाम है गीर।

स्थानीय निवासी धीरज बहादुर चंद बताते है कि यह खेल पहले सात समुदायों के बीच खेला जाता था लेकिन अब यह खेल केवल दो ही समुदायों के बीच खेला जाता है। जिसमें घनाडी कास्ट और सौन कास्ट शामिल है। हालांकि खेल में सभी समुदाय के लोग जुड़ते हैं लेकिन दोनों समुदयों में ही मिलकर।

धीरज बहादुर चंद आगे बताते हैं कि इस खेल के सात जातियों से दोजातियों के बीच सिमटने का सफर भी कुछ रोचक ही था। कहा जाता है कि मैदन में सात राठ यानी जाति के बीच जब यह खेल खेला गया तो साथ दिन, सात रात बीतने के बाद भी कोई हारने को तैयार नहीं था। जिसे देखते हुए एक राज वंसी चन्द ने इस खेल को रोकने के लिए निर्णय लिया कि यह खेल दो ही समुदायों के बीच खेला जायेगा, जिसमें अपनी इच्छा के अनुसार ही अन्य समुदाय के लोग इन दोनों समुदायों के साथ मिलकर खेल, खेल सकते हैं।

ऐसे खेला जाता है गीर …
इस मेले में एक बडी बॉल बनाई जाती है। जो भैसे यानी कटरे की खाल की होती है। जिसे लोग निमानुसार सुबह उजाला होते ही खाल में यानी मैदान में डालते है। और दोनो जातियों के लोग इस बॉल को अपने सीने से दबाकर खेलते है। जिसका अन्त हार जीत से होता है। यह खेल मंदिर के ठीक सामने स्तिथ मैदान में खेला जाता है। जिसमें कभी कभी पानी भी भर जाता है लेकिन मैदान में पानी होना शुभ माना जाता। जिसमें जीत हमेशा धनाडी कास्ट की होती है।

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यहाँ मनाया जाता है यह मेला…

इस खेल का आयोजन पंचेश्वर गॉबिस के सिउनाथ मंदिर में खेला जाता है। इस मंदिर में सदियों से चली आ रही यह अनोखी परम्परा साल में दो दिन के लिए सिउनाथ जांत के नाम से जानी जाती है। जिसे रतेडी-दिसेडी के दिन यहां पर भव्य मेला भी आयोजित होता है जिसमें मानों पूरा नेपाल उमड़ पड़ा हो।

यह मेला भइया दूज के ठीक सात दिन बाद आयोजित होता है। जो एक दिन और एक रात का रोचक मेला होता है। यहां यह परम्परा 12वीं सताब्दी से मनाई जा रही है, जिसमें देश-विदेश गए लोग भी मेले के लिए अपने घरों को आते हैं।

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अक्सर आपने देखा होगा कि उत्तराखंड के तमाम जिलों की और वहां के बासिंदों की भले ही अलग-अलग परम्पराएं हों, लेकिन यह खेल वाकई में कुछ अनूठा ही है। जिसमें केवल गिने-चुने ही खिलाड़ी नहीं बल्कि अनगिनत खिलाड़ी शामिल होते हैं। जिनकी संख्या 4-5 हज़ार से भी अधिक हो सकती है

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