कस्तूरी मृग प्रकृति के सुन्दरतम जीवों में से एक है। कस्तूरी मृग जिसे हिमालयन मस्क डियर भी कहते हैं उत्तराखंड का राजकीय पशु है। भारत में कस्तूरी मृग, जो कि एक लुप्तप्राय जीव है, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल के केदारनाथ, फूलों की घाटी, हरसिल घाटी तथा गोविन्द वन्य जीव विहार एवं सिक्किम के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया है। हिमालय क्षेत्र में यह देवदार, फर, भोजपत्र एवं बुरांस के वनों में पाया जाता है । कस्तूरी मृग पहाड़ी जंगलों की चट्टानों के दर्रों और खोहों में रहता है।
इस मृग के सींग नहीं होते है तथा उसके स्थान पर नर के दो पैने दाँत जबड़ों से बाहर निकले रहते है तथा उसके स्थान पर नर के दो पैने दाँत जबड़ों से बाहर निकले रहते हैं । जिनका उपयोग यह आत्मरक्षा और जड़ी-बूटियों को खोदने में करता है । अल्प आयु भोगी मृग मादा जिसकी अवस्था केवल तीन वर्ष की होती है, एक वर्ष की उम्र से ही बच्चे देने लगती है, मादा वर्ष में एक या दो बार 1-2 शावकों को जन्म देती है । कस्तूरी मृग में पाये जाने वाली कस्तूरी के कारण इसकी विशेष पहचान है पर इसकी यही विशेषता इसके लिये अभिशाप भी है। इस मृग की नाभि में अप्रतिम सुगन्धि वाली कस्तूरी होती है, जिसमें भरा हुआ गाढ़ा तरल पदार्थ अत्यन्त सुगन्धित होता है । कस्तूरी अपनी सुगंध के लिए प्रसिद्ध है तथा दवाइयों में प्रयुक्त होती है । इसमें कस्तूरी एक साल की आयु के बाद ही बनती है । एक मृग में सामानयतः 30 से 45 ग्राम तक कस्तूरी पायी जाती है । कस्तूरी से बनने वाला इत्र अपनी सुगन्ध के लिये प्रसिद्ध है । कस्तूरी मृग से मिलने वाले कस्तूरी की अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमत लगभग 30 लाख रुपये प्रतिकिलो है, जिसके कारण इसका अवैध शिकार किया जा रहा है। चीन 200 किलो के लगभग कस्तूरी का निर्यात करता है। कुछ विदेशी सौंदर्य प्रसाधन एवं औषधि कंपनियाँ सोने से तीन गुना महंगी कस्तूरी को मुँहमाँगी कीमत पर खरीदती हैं।
आयुर्वेद में कस्तूरी से दमा, क्राकायुरिस, निमोनिया, टाइफाइड, टी.बी., मिर्गी, आर्थराइटिस और हृदय रोग जैसी कई बिमारियों का इलाज किया जा सकता है। आयुर्वेद के अलावा यूनानी और तिब्बती औषधी विज्ञान में भी कस्तूरी का इस्तेमाल बहुत ज्यादा किया जाता है। इसके अलावा इससे बनने वाली परफ्यूम के लिये भी इसकी बहुत मांग है।
उत्तराखंड के अलावा यह नेपाल, चीन, तिब्बत, मंगोलिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूटान, वर्मा, कोरिया एवं रुस आदि देशों में भी पाया जाता है।
कस्तूरी मृग का अस्तित्व खतरे में है। जैसा की हम जानते हैं कि कस्तूरी सिर्फ नर में ही पायी जाती है जबकि इसके लिये मादा मृगों का भी शिकार किया जाता है । जिस कारण इनकी संख्या में बहुत ज्यादा कमी आ गयी है । एक समय कस्तूरी मृग हिमालय में बड़ी संख्या में पाया जाता था, लेकिन उन्नीसवीं सदी में कस्तूरी की इतनी माँग बढ़ी कि बड़ी संख्या में उसका काफी शिकार हुआ।
इसके जीवन पर पैदा हो रहे संकट के चलते इसे `इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस´ ने `रैड डाटा बुक´ में शामिल किया गया है। भारत सरकार ने भी वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत इसके शिकार को गैरकानूनी घोषित कर दिया है। इंडियन वाइल्ड लाइफ बोर्ड ने जिन 13 वन्य प्राणियों के जीवन को खतरे की सूची में डाला है उसमें से कस्तूरी मृग भी एक है।
कस्तूरी मृग संरक्षण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने वन्य जीव प्रभाग के अंतर्गत ‘‘ कस्तूरी मृग विहार ’’ की स्थापना की । इसके साथ ही ‘‘ कस्तूरी मृग प्रजनन केन्द्र ’’ काँचुला खर्क ’’ स्थापित किया गया और पिथौरागढ़ जिले में ‘‘ अस्कोट कस्तूरी अभयारण्य ’’ की स्थापना की गयी ।
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर यानी आईयूसीएन के माइकल ग्रीन ने इस मृग को शोध के लिए चुना है। उनका अनुमान है कि प्रतिवर्ष हिमालय से 200 किलो तक कस्तूरी विदेशी बाजारों में भेजी जाती है जिसके लिए शिकारी मृगों का शिकार करते हैं। इसके अलावा इस मृग के संरक्षण व संवर्धन को लेकर कई मृग फार्म भी बनाए गए हैं लेकिन वह अपनी सार्थकता साबित नहीं कर पाए हैं। चमोली जिले के कांचुलाचखार्क में बना मृग अभ्यारण्य इसका उदाहरण है जहां मृग बच ही नहीं पाए हैं।
ऐसे में इसे अन्यत्र स्थानांतरित करने की योजना भी धराशायी हो गई है। गौरतलब है कि कस्तूरी मृग विहारों में कस्तूरी मृगों का प्रजनन कर उनकी नाभि से कस्तूरी निकाली जाती थी और फिर पुनः उन्हें कस्तूरी पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता था लेकिन यह विधि ज्यादा कारगर नहीं हो पाई और विहार असफल हो गए।