उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य पर, राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक लगभग 450 अरब का कर्जा हो चुका है। वहीं राज्य सरकार अब एक बार फिर 300 करोड़ का कर्जा उठाने जा रही है।
राज्य के वेतन- पेंशन भोगियों और अच्छी सुविधाओं के नाम पर उत्तराखंड राज्य की सत्ताशीन सरकारें लगातार कर्ज लेती आ रही हैं। जिससे राज्य का हर नागरिक इस बोझ के तले तो दबा हुआ है ही, लेकिन एक मां के गर्भ में पल रहा शिशु भी इस कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है। सरकारें प्रदेश भर में सुविधाओं और पेंशन के नाम पर कर्जा उठाए जा रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत सरकार ने भी केवल 6 ही माह में बाज़ार से तीन बार कर्जा लिया। वहीं अब त्रिवेंद्र सरकार भी अपने किए गए वायदों को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से 300 करोड़ का कर्ज ले रही है। जिसके लिए आरबीआई अगले 10 साल के लिए 7.27 प्रतिशत के ब्याज दर पर देगा। साथ ही आपको बता दें कि भले ही इन लोनों की समय-समय पर किस्ते कटती रहती हैं, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यदि लिए गए लोनों की किस्ते जब जमा होती आ रही हैं तो फिर उत्तराखंड राज्य पर इतना कर्ज कैसे हुआ?
भले ही आरबीआई ने प्रदेश सरकार के लिए कर्ज की सीमा तय कर रखी है। जिससे मौजूदा वित्तीय वर्ष के दौरान सरकार 5855 करोड़ रूपये तक का लोन ले सकती है। लेकिन इतना कर्जा पहले से ही होने के बावजूद भी सरकारें कर्जा और बढ़ाने में तुली हुई हैं।
”वहीं सरकार द्वारा वेतन देने के लिए उठाए गए कर्ज पर विपक्ष से सवाल उठने लगे हैं। इस बाबत पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि सरकार को 300 करोड़ का कर्ज बाजार से वेतन देने के लिए लेना पड़ रहा है, तो इस सूबे और सरकार का भगवान ही मालिक है”। लेकिन देखा जाये तो पूर्वर्ती सरकार ने भी एक ही साल में तीन बार मार्किट से कर्जा लिया।
हैलो उत्तराखंड ने जब किशोर उपाध्याय से इस बाबत पूछा गया कि सरकारे तो पहले से ही कर्ज लेती आ रही हैं तो इस सवाल पर उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती सरकार और अब की सरकार का कर्ज लेने का उद्देश्य कुछ और था। पहली सरकार ने उत्तराखंड के विकास कार्य के लिए बाजार से कर्जा लिया था। लेकिन अब की सरकार अपने ही कर्मचारियों को वेतन देने के लिए यह कर्जा बाजार से ले रही है।
आपको बता दें कि इस बार सरकार वेतन-पेंशन और भत्तों को देने के लिए यह कर्जा वहन कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि जब सरकार के पास मात्रा के अनुरूप पैसा नहीं था तो फिर प्रदेश भर में सातवां वेतन भत्ता लागू करने की क्या आवश्यकता थी? सोचने वाली बात यह भी है कि कई विभाग ऐसे हैं जहां पर पूर्ण तरीके से कर्मचारियों को तो छटवें वेतन भत्ते के अनुरूप भी वेतन नहीं मिलता। और जवाब में कर्मचारियों को कहा जाता है कि राज्य का इतना बजट नहीं है । तो फिर आखिर क्या सोच कर सरकार ने सातवां वेतन लागू किया?
डबल इंजन के दावे पर बीजेपी भले ही उत्तराखंड में काबिज तो हो चली है लेकिन जिस प्रकार सरकार केंद्र के बजाय बाज़ार से कर्ज लेने जा रही है उससे साफ़ हो गया है कि प्रदेश में केवल कहने को डबल इंजन का साथ है।
जिस प्रकार उत्तराखंड धीरे-धीरे कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। और बकाया पैसा ही अभी लौटाने में असमर्थ है, व जिस प्रकार विकास और प्रगति के नाम पर कर्जा किया जा रहा है उससे साफ है कि हमारी आने वाली पीढ़ी जन्मोजन्म तक कर्ज के तले ही दबी होगी।