उत्तरकाशी: जनपद में मंगसीर की बग्वाल को बड़े धूमधाम के साथ मनाया गया। इस दौरान स्थानीय लोग अपनी संस्कृति तथा स्थानीय गढ़-वेश में नज़र आये। वहीँ कंडार देवता मंदिर से मंगशीर बग्वाल पर सुंदर झांकी निकाली गई।
फिर रात के समय रामलीला मैदान में चाय की चुस्कियों के साथ शुरू हुआ भैलो कार्यकर्म, जिसे देवदार तथा चीड़ की लकड़ी से बनाया जाता है।
मंगसीर की बग्वाल को जनपद में बड़े धूमधाम के साथ खेला गया। जिसमें कि कंडार देवता मंदिर से स्थानीय गढ़-वेश पहने महिलाओं ने रासौ तांदी नृत्य करते हुए झांकी निकाली। इस झांकी में वीरभड माधवो सिंह भंडारी घोड़े पर सवार सबसे आगे दिखे। जबकि बगवाल में उत्तराखंड की संस्कृति के विविध रंग देखने को मिले।
ढोल-दमाऊ के साथ बाजार में सुंदर झाकियों को निकाला गया। वहीं आजाद मैदान में देर रात लोग भैलो नृत्य करते दिखाई दिए। पारंपरिक वाद्य यंत्र ढोल, दमाऊ और रणसिंगे भी नगर में खूब गूंजे।
जनपद में मंगसीर माह में मनाई जाने वाले इस त्यौहार के दो इतिहास हैं, पहला कार्तिक माह की दीपवाली के एक माह बाद मंगसीर की बग्वाल मनाई जाती है। और दूसरा गंगा तथा गाजणा घाटी की मंगशीर बग्वाल के बारे में गंगोत्री तीर्थ क्षेत्र ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन शोध ग्रंथ के अनुसार वर्ष 1627-28 के बीच गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं में घुसकर लूटपाट करते थे। तब राजा माधो सिंह भंडारी व लोदी रिखोल के नेतृत्व में चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र में सेना भेजी थी। सेना विजय करते हुए दावघाट(तिब्ब्त) तक पहुंच गई थी। ऐसे में कार्तिक मास की बग्वाल के लिए माधो सिंह भंडारी घर नहीं पहुंच पाए। उन्होने घर पर संदेश भिजवाया कि जब वे जीतकर लौटेंगे, तब ही बग्वाल मनाई जाएगी। युद्ध के बीच मध्य में ही एक माह बाद माधो सिंह अपने गांव मलेथा पहुंचे। तब उत्सवपूर्वक बग्वाल मनाई गई।
तब से गढ़वाल में मंगसीर की बग्वाल मनाने की परंपरा शुरू हो गई। वहीं इस परंपरा का खास नजारा उत्तरकाशी की गंगा घाटी में देखने को मिलता है।