देहरादूनः भारतवर्ष में मंदिर, मठ और धार्मिक स्थलों की अपनी परम्पराएं हैं। ये परम्पराएं हजारों सालो से चली आ रही हैं। आज भी लोग इन परम्पराओं को पूर्व की भांति निभाते आ रहे हैं। आज हम आपको विश्वविख्यात बदरी धाम के उस क्षण की अनूठी परम्परा के बारे में बताने जा रहे हैं कि आखिर धाम के कपाट बंद होने पर रावल क्यों स्त्री का वेष धारण करते हैं?
बदरीनाथ वह पावन स्थली है जहां पर भगवान नर-नारायण रूप में विराजमान हैं। इस धाम को बैकुंठ धाम के रूप में जाना जाता है। मान्यता है कि यहां अपने पितृ तर्पण करने के बाद उनकी आत्मा को बैकुंठ में स्थान मिलता है।
मान्यता यह भी है कि जब भगवान विष्णु इस स्थली पर तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। जिससे भगवान विष्णु हिमपात में पूर्ण तरह से डूब चुके थे। उनकी इस स्थिति को देख माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने बेर बदरी के वृक्ष का रूप धारण किया और भगवान विष्णु के साथ तब तक रहीं जब तक उनकी तपस्या पूर्ण न हुई। जब भगवान विष्णु की तपस्या पूर्ण हुई तो उन्होंने देखा कि लक्ष्मी भी उनके साथ तप कर रही हैं। तब भगवान विष्णु ने मां लक्ष्मी से कहा कि तुमने मेरी रक्षा की है आज से मुझे बदरी के नाथ-बदरीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा।
इसी मान्यता के तहत आज भी बदरीनाथ मंदिर प्रांगण में स्थित मां लक्ष्मी का मंदिर है और पौराणिक परम्पराओं के अनुसार जब 6 माह बाद मंदिर के कपाट बंद होने से पूर्व लक्ष्मी की मूर्ति को भगवान नारायण के सानिध्य में रखा जाता है जिसके लिए एक अदभुत परम्परा पूर्व से चली आ रही है कि मंदिर के रावल यानि कि पुजारी को इस अंतिम चरण में स्त्री का वेश धारण करना पड़ता है।
कपाट बंद होने से एक दिन पूर्व भगवान नारायण के निकट विराजमान श्री लक्ष्मी मंदिर में विराजमान भगवती लक्ष्मी जी को न्यौता दिया जाता है कि वे श्री हरि के कपाट बंद से पूर्व भगवान के सानिध्य में विराजें। जिसके बाद पुजारी कपाट बंद होने से पूर्व स्त्री का रूप धारण कर मां लक्ष्मी जी की सखी बनकर लक्ष्मी जी के विग्रह को गोदी में लेकर बदरीनाथ मंदिर में भगवान के सानिध्य में विराजमान करवाते हैं।
हालांकि कपाट बंद करने और लक्ष्मी जी की मूर्ति को भगवान नारायण के साथ विराजमान करने से पूर्व भगवान नारायण का विशेष श्रृंगार हजारों फूलों से किया जाता है। और बदरीश पंचायत अर्थात भगवान के सानिध्य में विराजमान उद्धव जी और देवताओं के खजांची तथा अल्कापुरी के अधिष्ठाता कुबेर जी महाराज का विग्रह सम्मान के साथ गर्भ ग्रह से बाहर लाया जाता है। जिन्हें कपाट बंद होने पर पांडुकेश्वर लाया जाता है।
यहां पर मान्यता है कि उद्धव जी श्री कृष्ण के बाल सखा हैं, लेकिन उम्र में कुछ बड़े हैं। इस लिए उद्धव जी कृष्ण रूप श्री हरि बदरीनाथ में लक्ष्मी जी के जेठ हुए। हिंदू परम्परा में बहू जेठ जी के सामने पति के साथ नहीं बैठ सकती। इस लिए जब उद्धव जी का विग्रह मंदिर से बाहर आयेगा तभी लक्ष्मी जी पति श्री हरि बदरी नारायण के सानिध्य में विराजेंगी।